Sunday, July 26, 2020

जिंदगी और गुलाब के फूल:-उषा प्रियंवदा

जिंदगी और गुलाब के फूल 
                                  उषा प्रियंवदा



        सुबोध काफी शाम को घर लौटा। दरवाज़ा खुला था,बरामदे में हल्की रोशनी थी,और चौके में आग की लपटों का प्रकाश था। अपने कमरे में घुसते ही उसे वह खाली-खाली-सा लगा। दूसरे क्षण ही वह जान गया कि कमरे का कालीन निकाल दिया गया है और किनारे रखी हुई मेज़ भी नहीं है। मेज़ पर कागज़ के फूलों का जो गुलदस्ता रहता था,वह कुछ ऐसे कोण से खिड़की पर रखा था कि लगता था,जैसे मेज़ हटाते वक़्त उसे वहाँ वैसे ही रख दिया गया हो।
     उसने बहुत कोमलता से गुलदान उठा लिया। कागज़ के फूल थे तो क्या,गुलदान तो बहुत बढ़िया कट ग्लास का था। पहले कभी-कभी शोभा अपने बाग़ के गुलाब लगा जाती थी,पर अब तो इधर,कई महीनों से यही बदरंग फूल थे और शायद यही रहेंगे। सुबोध ने फिर खिड़की पर गुलदान रखते हुए सोचा, हाँ, यही रहेंगे, क्योंकि शोभा की सगाई हो गई थी,और उसका भावी पति किसी अच्छी नौकरी पर था। सुबोध ने कोट उतारकर खूंटी पर टांग दिया…..आखिर कब तक शोभा के पिता उसके लिए अपनी लड़की कुँवारी बैठाए रखते?.....सुबोध खिड़की के पार देख रहा था-धूल-भरी साँझ,थके चेहरे, बुझे हुए मन…..
     फिर वह माँ के पास आया। उसकी माँ चौके में चूल्हे के पास बैठी थी। वह वहीं पीढ़े पर बैठ गया। कुछ देर कोई नहीं बोला। माँ ने दो-एक बार उसे देखा जरूर,पर कुछ नहीं, पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रही,ऐसी मूर्ति जिसकी केवल आँखे जीवित थीं।
     एकाएक सुबोध पूछ बैठा,"अम्मा,मेरे कमरे का कालीन कहाँ गया? धूप में डाल था क्या?
     बाएँ हाथ से धोती का पल्ला सिर पर खींचती हुई माँ बोली,"वृन्दा अपने कमरे में ले गई है। उसकी कुछ सहेलियाँ आज खाने पर आएँगी।"
     सुबोध को अपने पर आश्चर्य हुआ कि वह इतनी-सी बात पहले ही क्यों न समझ गया? उसकी सारी चीजें वृन्दा के कमरे में जा चुकी थीं,सबसे पहले पढ़ने की मेज़,फिर घड़ी, आरामकुर्सी और अब कालीन और छोटी मेज़ भी। पहले अपनी चीज़ वृन्दा के कमरे में सजी देख उसे कुछ अटपटा लगता था,पर अब वह अभ्यस्त हो गया था यद्यपि उसका पुरुष-ह्रदय घर में वृन्दा  की सत्ता स्वीकार न कर पाता था।
     उसे अनमना हो आया देख माँ ने कहा,"तुम्हारे इंतजार में मैंने चाय भी नहीं पी। अब बना रही हूं,फिर कहीं चले मत जाना।" और पतीली का ढँकना उठाकर देखने लगी।
     सुबोध दोनों हाथों की उँगलियाँ एक-दूसरे में फँसाए बैठा रहा। उसके कंधे झुक गए और उसके चेहरे पर विषाद और चिंता की रेखाएं गहरी हो गई। सशंक नेत्रों से माँ उसे देखती रही। मन-ही-मन कई बातें सोचीं। कहने की,मौन का अंतराल तोड़ने की,पर न जाने क्यों वाणी न दे सकी। उसकी आँखों के सामने ही सुबोध बदलता जा रहा था। इस समय उसके नेत्र माँ पर अवश्य थे,पर वह उनसे हज़ारो मील दूर था। मौन रहकर जैसे वह अपने अंदर अपने-आपसे लड़ रहा हो। काश,सुबोध फिर वही छोटा-सा लड़का हो जाता,जिसके त्रास वह अपने स्पर्श से दूर कर देती थी। पर सुबोध जैसे अब उसका बेटा नहीं था,वह एक अनजान,गंभीर,अपरिचित पुरुष हो गया था,जो दिन-भर भटका करता था,रात को आकर सो रहता था। सुख के दिन उसने भी जाने थे। अच्छी नौकरी थी,शोभा थी। अपने पुराने गहने तुड़ाकर माँ ने कुछ नई चीजें बनवा ली थीं,और अब ये नए बूंदे और बलियाँ,हार और कंगन बक्स में पड़े थे। शोभा की शादी होने वाली थी और सुबोध बदलता जा रहा था।
     दो धुंधली,जल-भरी आँखे दो उदास आँखों से मिली। उनमें एक मूक अनुनय थी। सुबोध ने माँ के चेहरे को देखा और मुस्करा दिया। शब्द निरर्थक थे,दोनों एक-दूसरे की गोपन व्यथा से परिचित थे। उनमें एक मूक समझौता था। माँ ने इधर बहुत दिनों से सुबोध से नौकरी के विषय में नहीं पूछा था,और सुबोध भी अपने-आप यह प्रसंग न छेड़ना चाहता था।
     उसने कहा,"देखो, शायद पानी ख़ौल गया।"
     माँ चौंकी,दो बार जल्दी-जल्दी पलक झपकाए। फिर खड़ी होकर अलमारी से चायदानी उठाई। उसे गर्म पानी से धोया,बहुत सावधानी से चाय की पत्ती डाली और पानी उँड़ेला। फिर उस पर टीकौजी लगा दी। वह टीकौजी वृन्दा ने काढ़ी थी और उसकी शादी की आशा में बरसों माँ बक्स में रखे रहीं। अब उसे रोज व्यवहार करना माँ की पराजय थी। उससे बड़ी पराजय थी सुबोध की,जो अपनी छोटी बहन की शादी नहीं कर पाया था। टीकौजी पर एक गुलाब का फूल बना था और सुबोध उन गुलाब के फूलों की याद कर रहा था,जो शोभा उसके कमरे में सजा जाती थी,उन बाली और बूंदों की सोच रहा था,जो शोभा अब नहीं पहनेगी…..
      दूध गरम कर और प्याला पोंछकर माँ ने सुबोध के आगे रख दी। सुबोध पीढ़े पर पालथी मारकर बैठ गया,चाय छानने लगा।
      माँ अपनी कोठरी में जाकर कुछ खटर-पटर कर रही थी। ज़रा देर में ही एक तश्तरी में चांदी का वर्क  लगा हुआ सेब का मुरब्बा लाकर माँ ने उसके सामने रख दिया और बड़े दुलार से कहा,"खा लो !"
      अपने विचार पीछे ठेलकर,कुछ सुस्त हो,हंसते हुए सुबोध ने कहा,"अरे अम्मा ! बड़ी खातिर कर रही हो ! क्या बात है ?"
      माँ ने स्नेह-कातर कंठ से कहा,"तुम कभी ठीक वक्त से आते भी हो ! रात को दस-ग्यारह बजे आए ठंडा-सूखा खा लिया। सुबह देर से उठे,दोपहर को फिर गायब। कब बनाऊं,कब दूं ?"
      यह चर्या तो सुबोध कि पहले भी थी। तब वृन्दा और माँ दोनों उसके इंतज़ार में बैठी रहती थीं। वृन्दा हमेशा बाद में खाती थी। सुबोध की दिनचर्या के ही अनुसार घर के काम होते थे। पर तब वृन्दा नौकरी नहीं करती थी,तब सुबोध बेकार ना था। अब खाना वृन्दा की सुविधा के अनुसार बनता था। सुबह जल्दी उठना होता था, इसलिए रात को जल्दी खा कर सो जाती थी। अब सुबोध जब साढ़े आठ पर सोकर उठता तो आधा खाना बन चुकता था। जब नौ बजे वृन्दा खा लेती, तो वह चाय पीता। पहले जब तक वह स्वयं अखबार ना पढ़ लेता था,वृन्दा को अखबार छूने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, क्योंकि वह हमेशा पन्ने गलत तरह से लगा देती थी। अब उसे अखबार लेने वृन्दा के कमरे में जाना पड़ता था और इसीलिए उसने घर का अखबार पढ़ना छोड़ दिया था।
      जूठे बर्तन समेटते हुए माँ ने कुछ कहना चाहा, पर रुक गई। उसका असमंजस भांपकर सुबोध ने पूछा,"क्या है ?"
      प्याला धोते हुए मंद स्वर में माँ ने कहा,"घर में तरकारी कुछ नहीं है।"
      सुबोध ने उठकर कील पर टँगा मैला थैला उतार लिया। माँ ने आंचल की गांठ खोलकर मुड़ा-तुड़ा एक रुपए का नोट थमा दिया और कहा,"ज़रा जल्दी आना! अभी सारी चीज़ें बनाने को पड़ी हैं।"
     सुबोध कोट पहने बिना ही बाजार चल दिया।  यह पतलून वह काफी दिनों से पहन रहा था। कमीज के फटे हुए कब और कॉलर काफी गंदे थे, पर उसने परवाह नहीं की। पर दोनों हाथों से थैले का मुँह पकड़ कर उसमें गंदी तराजू से मिट्टी लगे आलू डलवाते हुए सुबोध को एक झटका-सा लगा। उसके पास ही किसी का पहाड़ी नौकर भाव पूछ रहा था। उसके घीकट बालों से माथे पर तेल बह रहा था, मुंह से बीड़ी का कड़वा धुआं निकल रहा था। वह भी थैला लिए था और तरकारी लेने आया था। सुबोध अचानक ही सोच उठा कि वह कहां से कहां आ पहुंचा है। अपने अफसर की अपमानजनक बात सुनकर तो उसने अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए इस्तीफा दे दिया था, लेकिन अब कहां है वह आत्म सम्मान? छोटी बहन पर भार बनकर पड़ा हुआ है। उसे देख कर माँ मन ही मन घुलती रहती है। जिंदगी ने उसे भी गुलाब के फूल दिए थे, लेकिन उसने स्वयं ही उन्हें ठुकरा दिया और अब शोभा भी…..
         हाथ झाड़कर सुबोध ने पैसे दिए और चल पड़ा।  इस सबके बावजूद उसके अंदर एक तुष्टि का हल्का-सा आलोक था, कि इस्तीफा देकर उसने ठीक ही किया। उसके जैसा स्वाभिमानी  व्यक्ति अपमान का कड़वा घूंट कैसे पी लेता? स्वाभिमान? सुबोध के ओठ एक कड़वी मुस्कान से खिंच उठे। वाह रे स्वाभिमानी! उसने अपने-आप से कहा।  उसे वे सब बातें स्पष्ट होकर फिर याद आ गई,वे बातें, जो रह-रह कर टीस उठती थी। सुबोध स्मृति का एल्बम खोलने लगा। हर चित्र स्पष्ट था। 
        नौकरी छोड़कर कुछ महीने घर नहीं लौटा,  वहीं दूसरी नौकरी खोजता रहा और जब लौटा तो उसने घर का चित्र ही बदला हुआ पाया। उसकी अनुपस्थिति में वृन्दा ने उसकी मेज़ ले ली थी और उसके लौटने पर वृन्दा ने अवज्ञा से कहा था,"दादा, आप क्या करेंगे मेज़ का? मुझे काम पड़ेगा।" 
         सुबोध कुछ तीखी-सी बात कहते-कहते रुक गया। कई साल में घिसट-घिसटकर बी.ए. एल. टी. कर लेने और मास्टरनी बन जाने से ही जैसे बिंदा का मेज़ पर हक हो गया हो! कोई अध्यापिका होने से ही पुस्तकों का प्रेमी नहीं हो जाता। सुबोध कि उस मेज़ पर अब जुड़े के कांटे, नेल-पॉलिश की शीशी और गर्द-भरी किताबें पड़ी रहती थी और फिर कुछ दिनों बाद माँ ने कहा,"वृन्दा को रोज स्कूल जाने में देर हो जाती है। अपनी अलार्म घड़ी दे दो, सुबोध!"
         सुबोध ने कठोर होकर कहा था, "नई घड़ी ख़रीद क्यों नहीं लेती? उसे क्या कमी है?" 
         माँ ने आहत और भर्त्सना पूर्ण दृष्टि से उसे देख कर कहा,"उसके पास बचता ही क्या है! तुम खर्च करते होते तो जानते!"
        "नहीं, मुझे क्या पता! हमेशा से तो वृन्दा  ही घर का खर्च चलाती आई है। मैं तो बेकार हूं, निठल्ला।"  और झुँझलाकर सुबोध ने घड़ी उसे दे दी थी।
         सबसे अधिक आश्चर्य तो उसे वृन्दा पर था। अक्सर वह सोंच उठता कि यह वही वृन्दा है; जो उसके आगे पीछे घूमा करती थी, उसके सारे काम दौड़-दौड़ कर किया करती थी! जब भी  उसने चाय मांगी, वृन्दा ने चाय तैयार कर दी। और अब? एक रात जरा देर से आने पर उसने सुना, वृन्दा बिगड़ कर माँ से कह रही थी, "काम न धंधा, तब भी दादा से यह नहीं होता कि ठीक वक्त पर खाना खा लें। तुम कब तक जाड़े में बैठोगी, माँ? उठाकर रख दो, अपने-आप खा लेंगे।"
        उसके बाद सुबोध रात को चुपचाप आता। ठंडा खाना खाकर अपने कमरे में लेट जाता।  सुबह जग जाने पर ही पड़ा रहता और वृन्दा के चाय पी लेने पर उठकर चाय पीता। बाजार से सौदा ला देता। मैले ही  कपड़े पहनकर बाहर चला जाता। और जब थक जाता, तो खिड़की के बाहर देखने लगता।
       माँ प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़ी थी। उनके हाथ में थैला देकर वह अपने कमरे में चला गया। कमरा उसे फिर नग्न और सुना-सा लगा। जूते उतार कर वह चारपाई पर लेट गया। चारपाई बहुत ढ़ीली थी, उसके लेटते ही सिकुड़ गई, तकिया नीचे खिसक आया। दरी की सिकुड़ने पीठ में गड़ती रही। सुबोध की आंखें बंद थी। हाथ शिथिल और कान अंदर और बाहर के विभिन्न स्वर सुनते रहे।  खिड़की के पास से गुजरते दो बच्चे, सड़क पर किसी राही की बेसुरी बजती बांसुरी, खट-खट करते दो भारी जूते, अंदर बर्तन की हल्की खटपट,तरकारी में पानी पड़ने की छन और खींची जाती चारपाई के पायो की फर्श से रगड़…….।
        कभी बाहर का दरवाजा अचानक खुला और वृन्दा ने कुछ तीखे-से स्वर में पूछा, "अम्मा, दादा घर में है?"
        सुबोध सुनकर भी न उठा। माँ का उत्तर सुन वृन्दा उसके कमरे के दरवाजे पर खड़ी होकर बोली, "दादा, तांगे वाले को रुपया तुड़ाकर बारह आने दे दो।"
        सुबोध ने चप्पलों में पैर डाले, उसके हाथ से रुपया लिया और बाहर आया।
         उसकी दृष्टि सामने खड़ी शोभा से मिल गई। उसके नमस्कार का संक्षिप्त उत्तर दे वह बाहर आ गया। नोट तुड़ाकर तांगे वाले को पैसे दिए और फिर अंदर नहीं गया।  पड़ोस में एक परिचित के घर बैठ गया, और शतरंज की बाजी देखने लगा।
         वहां बैठे-बैठे जब उसने मन में अंदाजा लगा लिया कि अब तक शोभा और निर्मला खाना खा कर चली गई होंगी, तो वह घर आया। सड़क पर सन्नाटा हो गया था। बत्तियों के आस-पास धुंधले प्रकाश का घेरा था, और पानवाला, ग्राहकों की प्रतीक्षा में चुप और स्थिर  बैठा था। 
         वृन्दा ने झुँझलाकर कहा, "कहां चले गए थे, दादा? शोभा और निर्मला कब से घर जाने को बैठी है! तुम्हें पहुंचाने जाना है।"
       " मुझे मालूम नहीं था", सुबोध ने कहा।
       " जैसे कभी शोभा को घर पहुंचाया नहीं है!" वृन्दा ने कहा।
       " तब", सुबोध ने सोचा, तब शोभा की सगाई कहीं और नहीं हुई थी, तब वह बेकार ना था। शोभा उससे शर्माती थी, पर उसके गुलदान में फूल लगा जाती थी। माँ नए गहनें बनवा रही थी, और वृन्दा अपने कमरे में बैठी-बैठी कुढ़ती थी, क्योंकि बदसूरत थी और उससे कोई शादी करने को राजी नहीं होता था……
       " अच्छा तो चलें", सुबोध ने शोभा की ओर नहीं देखा।
         पर शोभा बोल पड़ी, "हमें जल्दी नहीं है। आप खाना खा लीजिए।"
         माँ ने कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ा दी। वृन्दा  निर्मला को लेकर अपने कमरे में चली गई। सुबोध बैठ गया और शोभा ने उसके आगे तिपाई रख दी। फिर उसने रेशमी साड़ी का आंचल कमर में खोंस लिया और थाली लाकर उसके सामने रख दी। सुबोध नीची नजर किए खाने लगा। चौके से बरामदे, बरामदे से चौके में बार-बार जाती हुई शोभा की साड़ी का बॉर्डर उसे दिखाई देता रहा, हरी साड़ी, जोगिया बॉर्डर, जिस पर मोर और तोता कढ़े हुए थे। कभी-कभी एड़ियां भी झलक उठती,उजली, चिकनी एड़ियां। सुबोध को लगता कि वह अतीत में पहुंच गया है। और शोभा वही है। वही जिससे कभी उसकी प्यार की बातें नहीं हुई, पर जो अनायास ही उससे शर्माने लगी थी। शायद उसे पता चल गया था कि उसके पिता ने सुबोध से बातचीत शुरू कर दी है…...और शायद अब तक शादी भी हो जाती, अगर सुबोध को कोई दूसरी नौकरी मिल जाती, या अगर सुबोध पहली अच्छी नौकरी ना छोड़ता…..
        सुबोध ने खाना बंद कर दिया। पानी पीकर, हाथ धोने उठा,तो शोभा  झट से हाथ धुलाने लगी। उसकी आंखों में विनय-भरी कातरता थी, उसके मुख पर उदासी, पर उसके बालों से सुबास आ रही थी।
         जब वह तांगा लेकर आया, तो शोभा माँ के पास चुप खड़ी थी और माँ उसके सिर पर हाथ फेर रही थी।
         रास्ते-भर दोनों चुप रहे। सबसे पहले निर्मला का घर आया,  उसके उतर जाने पर शोभा ने आंसू-भरे कंठ से कहा, "आप यहां पीछे आ जाइए न।" वह उतर कर पीछे आ गया, तब बोली, "कुछ बोलेंगे नहीं?"
       " क्या कहूं?" सुबोध ने उसकी ओर मुड़ कर उसे देखते हुए कहा।
         शोभा की आंखें छलक रही थी। पोंछकर  कहा, "मैंने तो पिताजी से बहुत कहा….. । फिर आखिर मैं क्या करती?" 
        "मैं तो कुछ भी नहीं कह रहा हूं। इस बात को स्वीकार कर लो कि मैं जिंदगी में फेलियर हूं,  कंप्लीट फेलियर। कुछ नहीं कर सका! जैसे मेरी जिंदगी में अब फूलस्टॉप लग गया है। अब ऐसे ही रहूंगा। तुम्हारे फादर ने ठीक ही किया। तुम सुखी होओगी। प्यार से बड़ी एक और आग होती है, भूख की! वह आग धीरे-धीरे सब कुछ लील लेती है……."
         "आप इतने बिटर क्यों हो गए हैं?"
         " जिंदगी ने मुझे बिटर बना दिया है", फिर जैसे जागकर,टांगे वाले से कहा,"अरे बड़े मियां! लौटा ले चलो, घर तो पीछे छूट गया।"
        शोभा उतरी।कुछ क्षण अनिश्चित-सी खड़ी रही। सुबोध के हाथ बढ़े,पर फिर पीछे लौट आए, "अच्छा,शोभा।"
       " नमस्ते", शोभा ने कहा और वह अंदर चली गई। तांगे में अकेला सुबोध सड़क पर घोड़े की एकरस टापों के शब्द को सुन रहा था। कभी-कभी तांगे वाला खाँस उठता और वह खांसी उसका शरीर झिंझोड़ जाति। अंधेरा…... खांसी…...और आखिरी सपने की भी मौत!
         


         सुबह उठकर सुबोध ने सबसे पहले बरामदे में बैठे धोबी को देखा। जितनी देर में उसके लिए चाय बनी, उसने अपने सारे गंदे कपड़े इकट्ठे कर, उनका ढेर लगा दिया।  अलमारी में सिर्फ एक साफ कमीज बची थी, पीठ पर फटी हुई। उसे ढकने के लिए सुबोध ने कोट पहन लिया। कोट को भी काफी दिनों से धोबी को देने का इरादा था, परंतु अब जब तक धोबी कपड़े लाए, तब तक वही सही।
       चाय पीकर वह बाहर चला आया, कोट की जेबों की तलाशी करने पर उंगलियां एक इक्कनी से जा टकराई। पान वाले की दुकान पर सिगरेट खरीदा और जलाकर एक गहरा कश खींचा, और दो-एक जगह रुककर वापस चला।  रास्ते में उसे धोबी मिला, और उसने सुबोध को दोबारा सलाम किया।
      "कपड़े जरा जल्दी लाना, समझे?" कुछ रोब से सुबोध ने कहा।
      " अच्छा बाबूजी," धोबी चला गया।
       कमरे में घुसते ही मैले कपड़ों का ढ़ेर उसे वैसे ही दिखाई पड़ा, जैसे कि छोड़ गया था। उसने वहीं रुककर पुकारा, "अम्माँ! मेरे कपड़े धुलने नहीं गए।"
      "पता नहीं, बेटा। वृन्दा दे रही थी, उससे कहा भी था कि तुम्हारे भी दे दे….." 
       सुबोध को न जाने कहां का गुस्सा चढ़ आया। चीखकर बोला, "कितने दिनों से गंदे कपड़े पहन रहा हूं! पंद्रह दिन में नालायक धोबी आया, तो उसे भी कपड़े नहीं दिए गए। तुम माँ-बेटी चाहती क्या हो? आज मैं बेकार हूं, तो  मुझसे नौकरों-सा बर्ताव किया जाता है! लानत है ऐसी जिंदगी पर!"
         माँ त्रस्त हो उठी। जब सुबोध का कंठ-स्वर इतना ऊँचा हो गया कि बाहर तक आवाज़ जाने लगी, तो वह रो दी। उसने कुछ कहना चाहा, मगर सुबोध ने अवसर नहीं दिया। कहता गया, "मुझे मुफ्त का नौकर समझ लिया है? पहले कभी तुमने मुझे यह सब काम करते देखा था?  फिर उसके कंठ की नकल करता हुआ बोला, "घर में तरकारी नहीं है! वृन्दा की सहेलियां खाना खाएंगी। उधर हमारी बहन है की हुकूमत किया करती हैं! अब मैं समझ गया हूं कि मेरी इस घर में क्या कद्र है, मैं आज ही चला जाऊंगा। तुम दोनों चैन से रहना।"
         कहता-कहता वह घर से बाहर आ गया। अपनी छटपटाहट में उसके अंदर एक तीव्र विध्वंसक प्रवृत्ति जग उठी थी। उसका मन चाह रहा था कि जो कुछ भी सामने पड़े, उसे तहस-नहस कर डाले। वह चलता गया और उसी धुन में एक साइकिल सवार से टकरा गया। वह गिर पड़ा। उसके ऊपर साइकिल आ गई और वह व्यक्ति सबसे ऊपर। जब उसकी कोहनियां खुरदरी सड़क से छिलीं, और एक तीव्र पीड़ा हुई, तो उसका ध्यान बंटा। वह कुछ हक्का-बक्का-सा  रह गया। उसने पाया कि उस व्यक्ति ने उससे तकरार नहीं की, अपने कपड़े झाड़े और साइकिल उठाते हुए कहा, "भाई साहब, जरा देख कर चला कीजिए। चोट तो नहीं आई।"
       अगर वह लड़ता तो उस मूड में शायद सुबोध मार-पीट करने को उतारू हो जाता। पर उसकी अप्रत्याशित विनम्रता से सुबोध ठिठककर रह गया।
       जब सुबोध ने उठकर चलने की कोशिश की तो पाया कि बायाँ पैर सूझने लगा है। लंगड़ाता हुआ वह पार्क की बेंच पर आकर बैठ गया। उसकी दाहिनी कोहनी से खून टपक रहा था। जरा-सा भी हिलने से पैर में तीव्र पीड़ा होने लगती थी। उसने संभालकर पैर बेंच पर रख लिया और लेट गया।
       अपना ध्यान पीड़ा से हटाने के लिए वह फूलों को देखने लगा। उसकी बेंच के पास ही गुलाब की घनी बेल थी, जिसमें हल्के पीले फूल थे। दर्द बढ़ता जा रहा था। उसने हिलना-डुलना भी बंद कर दिया। कुछ देर स्थिर पड़े रहने से दर्द में विराम हुआ, तो उसके ख्याल फिर सवेरे की घटना पर केंद्रित हो गए।
        उसका पैर हिला और दर्द की तेज़ लहर उठकर पूरे बायें पैर में व्याप्त हो गई। सुबोध ने ओठ भींच लिए। 
        जाड़ो की धूप थी पर लोहे की बेंच धीरे-धीरे गरम होती जा रही थी और बेंच का एक उठा हुआ कोना उसकी पीठ में गढ़ रहा था। पर वह हिला-डुला नहीं। आँखे खोलकर सड़क की ओर देखा, तो स्कूल जाते हुए बच्चे, साइकिलें, खोमचेवाले…..  उसने आंखें बंद कर ली। जब पैर का दर्द कम होता, तो कोहनी छरछराने लगती। पर इस आत्मपीड़न से जैसे उसे कुछ संतोष-सा हो रहा था। 
        वह कब सो गया, उसे पता नहीं। जब आंखें खुलीं, तो सूरज सर पर था और बेंच तप रही थी। वह उठकर, बायाँ पैर घसीटा और दर्द सहता हुआ छाँह में घास पर लेट गया। उस पर एक बेहोशी-सी छाई जा रही थी। घास का स्पर्श शीतल था, सुखदायी हवा में गुलाब के फूलों की सुबास थी, पर उसे चैन न था।
       उसे अचानक माँ का ध्यान आ गया। शायद वह चिंतित दरवाजे पर खड़ी हो, शायद वह उसके इंतजार में भूखी हो। उसने एक लंबी सांस ली और बायें सिर के नीचे रख ली।
         दिन कितना लंबा हो गया था कि बीत ही नहीं रहा था। जैसे एक युग के बाद आकाश में एक तारा चमका और फिर अनेक तारे चमक उठे। सुबोध घास से उठकर फिर बेंच पर लेट गया। उसके सिर में भारीपन था, मुँह में कड़वाहट, पैर में जैसे एक भारी पत्थर बँधा था। सारा दिन हो गया था, पर कोई खोजता हुआ नहीं आया। वृन्दा को तो पता था कि वह अक्सर पार्क में बैठा करता है। मगर उसे क्या फिक्र?
         पार्क से लोग उठ-उठकर जाने लगे थे। बच्चे उनकी आयाएँ, स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए घूमने आने वाले प्रौढ़, दो-दो चोटियां किए, हंस-हंसकर एक-दूसरे पर गिरती मुहल्ले की लड़कियां….. पार्क शांत हो गया। हरी घास पर मूंगफली के छिलके,पुड़ियों के कागज के टुकड़े, तोड़े गए फूलों की मरी हुई पंखुड़ियां…..
        तीन फाटक बंद कर लेने के बाद चौकीदार सुबोध की बेंच के पास आकर खड़ा हो गया।
      " अब घर जाओ, बाबू, पार्क बंद करने का टेम हो गया।"
       बिना कुछ कहे सुबह उठ गया। दो-एक कदम लड़खड़ाया, फिर चलने लगा। हर बार जब बायाँ पैर रखता,तो दर्द होता। धीरे-धीरे लंगड़ा-लंगड़ाकर वह पार्क से बाहर निकल आया।
      दरवाजा खुला था। बरामदे में मद्धिम रोशनी थी। चौकी में अंधेरा। वह अपने कमरे में आया। कोने में मैले कपड़ों का ढेर था। ढीली चारपाई,दो बिस्तर,तिपाई पर खाना ढँका हुआ रखा था।
      सुबोध चारपाई पर बैठ गया, और तिपाई खींचकर लालचियों की तरह जल्दी-जल्दी  बड़े-बड़े कौर खाने लगा।